अहंकार यानी ‘मैं’ की भावना – एक ऐसी मानसिक स्थिति जो दिखने में ताकतवर लगती है, लेकिन अंदर से इंसान को धीरे-धीरे खोखला और कमजोर बनाती जाती है। प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु ओशो ने जीवनभर इस बात को समझाया कि अहंकार इंसान के दुखों की जड़ है। उन्होंने कहा, “जहाँ ‘मैं’ है, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता; जहाँ ‘मैं’ है, वहाँ सच्चा ध्यान, समर्पण और शांति नहीं हो सकती।”ओशो के अनुसार, अहंकार एक नकली आत्म-छवि है जिसे हम अपने बारे में बना लेते हैं — जो हम हैं नहीं, लेकिन बनना चाहते हैं या दिखाना चाहते हैं। ये छवि समाज, परिवार, शिक्षा और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से मिलकर बनती है। और जैसे-जैसे हम इस छवि को सहेजते हैं, हम खुद से और अपनी सच्चाई से दूर होते जाते हैं। ओशो इसे “स्वयं से दूर जाने की प्रक्रिया” कहते हैं।
अहंकार कैसे शुरू होता है?
बचपन से ही जब हम ‘बड़े बनो’, ‘आगे निकलो’, ‘तुम सबसे अच्छे हो’ जैसे शब्द सुनते हैं, तो एक प्रतिस्पर्धात्मक सोच विकसित होने लगती है। ओशो बताते हैं कि ये शुरुआत में प्रेरणास्पद लगती है, लेकिन धीरे-धीरे हम खुद की तुलना दूसरों से करने लगते हैं। तुलना से जलन, असुरक्षा और एक झूठी श्रेष्ठता की भावना जन्म लेती है — और यही होता है अहंकार का बीज।
अहंकार कैसे करता है विनाश?
ओशो के अनुसार, अहंकार एक ऐसा जहर है जो धीमे-धीमे आत्मा को खा जाता है। यह आपको अलग-थलग कर देता है, क्योंकि आप यह मानने लगते हैं कि आप दूसरों से बेहतर हैं या आपको किसी की जरूरत नहीं है। आप प्रशंसा और मान्यता की भूख में जीने लगते हैं, और जैसे ही कोई आपकी ‘छवि’ को चुनौती देता है, क्रोध, घृणा या अपमान की भावना जन्म लेती है।सम्बंधों में भी अहंकार सबसे बड़ा अवरोध बनता है। ओशो कहते हैं – “जहाँ अहंकार है वहाँ प्रेम कभी टिक नहीं सकता, क्योंकि प्रेम विनम्रता माँगता है, समर्पण चाहता है। और अहंकार समर्पण के ठीक विपरीत है।” इसलिए हम देखते हैं कि लोग अपने रिश्तों में असुरक्षित होते जा रहे हैं, क्योंकि वे एक-दूसरे से ‘सच्चे’ नहीं बल्कि ‘दिखावे’ के रिश्ते निभा रहे हैं।
ओशो का समाधान: साक्षी भाव और ध्यान
ओशो अहंकार से मुक्ति के लिए दो शक्तिशाली उपाय बताते हैं – ध्यान (Meditation) और साक्षी भाव (Witnessing)। वे कहते हैं कि जब आप स्वयं के विचारों, भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को बिना प्रतिक्रिया दिए केवल ‘देखते’ हैं, तो अहंकार की परतें अपने आप गिरने लगती हैं।उनके शब्दों में: “ध्यान कोई क्रिया नहीं है; ध्यान एक दृष्टा होने की कला है। जब तुम अपने भीतर उठती हर इच्छा, हर भय, हर कल्पना को देखना शुरू करते हो तो धीरे-धीरे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह ‘मैं’ जिसे तुम सबसे बड़ा मानते थे, सिर्फ एक भ्रम है।”