मनुष्य की यात्रा जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर स्वयं को खोजने की प्रक्रिया है। इस यात्रा में कई बार हम स्वयं को बाहरी उपलब्धियों, विचारों, पदों, रिश्तों और सत्ता से पहचानने लगते हैं। यही पहचान धीरे-धीरे ‘अहंकार’ का रूप ले लेती है, जो हमारी चेतना को संकुचित कर देती है। ओशो कहते हैं कि अहंकार, मनुष्य का सबसे बड़ा और छिपा हुआ शत्रु है — यह बाहर नहीं बल्कि भीतर ही जन्म लेता है और आत्मा की स्वतंत्रता को जकड़ लेता है।
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अहंकार क्या है?
अहंकार का अर्थ है — ‘मैं’ की झूठी धारणा। यह वह परछाईं है जिसे हम स्वयं समझ बैठते हैं। ओशो इसे बहुत सुंदर शब्दों में परिभाषित करते हैं, “Ego is the boundary between you and the truth.” जब मनुष्य स्वयं को अपने नाम, जाति, पद, धन, या विचारों से जोड़कर देखता है, तब वह अपने सच्चे स्वरूप से दूर हो जाता है। वह एक ऐसा मुखौटा पहन लेता है जो समाज ने दिया होता है — और इसी नकली अस्तित्व को ही वह अपना ‘स्व’ समझने लगता है। यही अहंकार है।
अहंकार क्यों है मनुष्य का परम शत्रु?
अहंकार हमें दूसरे से अलग दिखाने की इच्छा से पैदा होता है। हम श्रेष्ठ दिखना चाहते हैं, सम्मान पाना चाहते हैं, और अपने अस्तित्व को ‘विशेष’ साबित करना चाहते हैं। यह तुलना, स्पर्धा और अलगाव को जन्म देती है।ओशो कहते हैं — “Ego is always in comparison. It exists only when you compare yourself with others.”
जब तक अहंकार जीवित है, तब तक प्रेम, करुणा, क्षमा और आत्मज्ञान जैसे दिव्य गुणों का उदय नहीं हो सकता। अहंकारी व्यक्ति भीतर से असुरक्षित होता है, वह सच्चाई से डरता है, क्योंकि सत्य में उसका ‘मैं’ मिटता है। यही कारण है कि ओशो अहंकार को आत्मा की सबसे बड़ी बाधा मानते हैं।
अहंकार के लक्षण
खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझना
आलोचना सहन न कर पाना
हमेशा प्रशंसा की इच्छा रखना
दूसरों को नीचा दिखाकर स्वयं को ऊँचा महसूस करना
झूठे दिखावे और बाहरी आडंबर में जीवन बिताना
इन लक्षणों से युक्त व्यक्ति भीतर से रिक्त और भ्रमित होता है। वह रिश्तों में तनाव, अकेलेपन और आत्मिक बेचैनी से घिरा रहता है, चाहे बाहर से वह कितना भी सफल क्यों न दिखे।
ओशो के अनुसार अहंकार को त्यागने के सरल उपाय
ओशो केवल उपदेश नहीं देते, वे साधना के सहज मार्ग बताते हैं। अहंकार से मुक्ति के लिए उन्होंने कुछ व्यावहारिक और ध्यान आधारित उपाय बताए हैं:
1. ध्यान (Meditation)
ओशो कहते हैं — “Meditation is the death of the ego.” ध्यान के माध्यम से मनुष्य अपनी वास्तविकता से जुड़ता है। ध्यान के क्षणों में ‘मैं’ का झूठा भाव स्वतः गिरने लगता है, और ‘साक्षीभाव’ विकसित होता है। यह साक्षी ही आत्मा का दर्शन कराता है।
2. प्रकृति से जुड़ना
ओशो सलाह देते हैं कि जब मनुष्य प्रकृति के साथ होता है — पेड़, नदी, पर्वत, आकाश — तब वह स्वयं को विशाल अस्तित्व का एक अंश समझने लगता है। यह अनुभव अहंकार को धीरे-धीरे विघटित करता है।
3. हास्य और सहजता
हँसने और जीवन को गहराई से नहीं, बल्कि सरलता से देखने का भाव भी अहंकार को समाप्त करता है। ओशो कहते हैं — “Seriousness is a disease of the ego. Be playful. Be childlike.”
4. स्वीकार और समर्पण
ओशो ने यह भी स्पष्ट किया है कि जब तक हम सब कुछ नियंत्रित करने की कोशिश करते रहेंगे, तब तक अहंकार बना रहेगा। समर्पण का भाव — चाहे वह जीवन के प्रति हो, अस्तित्व के प्रति या गुरु के प्रति — हमें छोटेपन से उठाकर विशालता की ओर ले जाता है।
5. प्रशंसा या आलोचना से परे रहना
ओशो कहते हैं कि अगर हम दूसरों की राय से ऊपर उठ जाएं — न प्रशंसा से फूलें, न आलोचना से टूटें — तभी हम अहंकार के बंधन से मुक्त हो सकते हैं।
ओशो की दृष्टि में मनुष्य स्वयं में ही दिव्यता है, लेकिन अहंकार हमें इस दिव्यता से अलग कर देता है। जब तक हम स्वयं को भूमिका, नाम, उपलब्धियों से जोड़कर देखते रहेंगे, तब तक हम केवल सतह पर ही जीते रहेंगे। जीवन का असली आनंद, प्रेम और शांति तभी मिलती है जब हम ‘मैं’ को मिटाकर ‘हम’ बन जाते हैं। जब हम स्वयं को अस्तित्व का एक अंश मानने लगते हैं — न ऊँचा, न नीचा — बस शुद्ध साक्षी, तब अहंकार का अंत होता है और आत्मा का प्रकाश फैलने लगता है।