आज के भौतिकवादी युग में इंसान ने विज्ञान, तकनीक और संसाधनों के बल पर बहुत कुछ हासिल कर लिया है। लेकिन इस उपलब्धि के पीछे जब अहंकार जन्म लेता है, तब वहीं सफलता उसे पतन की ओर भी ले जाती है। इतिहास और शास्त्रों में अनेक उदाहरण मिलते हैं, जब मनुष्य ने अपने घमंड और अहंकार के कारण अनैतिक कर्म किए और उसका दंड उन्हें सिर्फ इस जन्म में ही नहीं, बल्कि जन्म-जन्मांतर तक भुगतना पड़ा। यह कोई धार्मिक कल्पना मात्र नहीं है, बल्कि एक गहरी जीवन सच्चाई है – कर्म का फल हर हाल में भोगना पड़ता है।
अहंकार – विनाश की जड़
अहंकार मनुष्य की चेतना को ग्रस लेता है। जब व्यक्ति यह मानने लगता है कि उसके ज्ञान, शक्ति या पद से बड़ा कोई नहीं, तब वह अपने कार्यों में संयम और नैतिकता की सीमा को लांघ जाता है। यही अहंकार उसे नैतिकता, सदाचार और सह-अस्तित्व से दूर कर देता है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने लाभ के लिए दूसरों को नुकसान पहुँचाने में भी पीछे नहीं रहता – चाहे वह धोखा हो, छल-कपट हो या अन्यायपूर्ण व्यवहार।
अनैतिक कर्मों का प्रभाव आत्मा पर
धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो आत्मा शुद्ध और अजर-अमर होती है, लेकिन जब वह बार-बार शरीर धारण करती है, तो हर जन्म के कर्मों की छाया उसके ऊपर पड़ती जाती है। जब व्यक्ति अहंकारवश पापकर्म करता है – जैसे झूठ बोलना, दूसरों का हक छीनना, भ्रष्टाचार करना या किसी को मानसिक-शारीरिक पीड़ा देना – तो वो कर्म उसके सूक्ष्म शरीर (अवचेतन स्तर) पर चिपक जाते हैं। यही कर्म अगले जन्मों के प्रारब्ध (भाग्य) का कारण बनते हैं। यही वजह है कि कुछ लोग जन्म से ही पीड़ा, गरीबी या रोग लेकर पैदा होते हैं – वे उसी कर्म फल को भोग रहे होते हैं जो उन्होंने पूर्व जन्म में अर्जित किया होता है।
शास्त्रों में भी मिलते हैं प्रमाण
महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्य हमें बार-बार यह सिखाते हैं कि घमंड अंततः विनाश का कारण बनता है। रावण एक अत्यंत ज्ञानी, शक्तिशाली और तपस्वी राक्षस था। परंतु अहंकारवश उसने श्रीराम की पत्नी सीता का हरण किया – यही उसका सबसे बड़ा अनैतिक कर्म बना। नतीजतन उसका कुल नष्ट हुआ और वह स्वयं मारा गया। दूसरी ओर, दुर्योधन ने भी पांडवों के साथ अन्याय और छल किया, और उसका विनाश कुरुक्षेत्र में हुआ।इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि अहंकार में किए गए कार्य चाहे किसी भी युग में किए गए हों, उनका दंड निश्चित है – और वह सिर्फ एक जीवन तक सीमित नहीं रहता।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
मनोविज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है कि अहंकार में किया गया कार्य व्यक्ति के मन को विचलित करता है। जब इंसान बार-बार दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, या अपने स्वार्थ के लिए अनैतिक तरीके अपनाता है, तो उसके भीतर अपराधबोध, तनाव और असंतुलन पैदा होता है। यह मानसिक अस्थिरता धीरे-धीरे जीवन के हर क्षेत्र में असर डालती है – संबंध बिगड़ते हैं, कार्यक्षमता घटती है और अंततः व्यक्ति खुद से भी दूरी महसूस करने लगता है।
जीवन को सार्थक बनाने का मार्ग
अहंकार और अनैतिक कर्मों के चक्रव्यूह से बचने का सबसे बेहतर उपाय है – आत्मनिरीक्षण और विनम्रता। यदि व्यक्ति समय-समय पर अपने कर्मों का विश्लेषण करे और अपनी गलतियों को स्वीकार करे, तो वह दुर्गति से बच सकता है। आध्यात्मिक ग्रंथों में भी यही कहा गया है कि “माना हुआ अपराध, आधा क्षमायाचित होता है।”
हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि अहंकार स्थायी नहीं है। जो आज पद पर है, कल वह साधारण हो सकता है। जो आज शक्तिशाली है, कल निर्बल हो सकता है। इसलिए अपने कर्मों को ऐसा बनाना चाहिए जो दीर्घकालिक संतोष दे न कि अगले जन्मों की पीड़ा का कारण बने।
अहंकार के प्रभाव में किए गए अनैतिक कर्म केवल इस जीवन को ही नहीं, बल्कि आत्मा के आगामी कई जीवनों को भी कष्टमय बना सकते हैं। चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या सामाजिक, जब तक इंसान अपने भीतर नम्रता, संयम और नैतिकता नहीं अपनाता, तब तक वह कर्म बंधनों से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए ज़रूरी है कि हम हर कार्य करते समय केवल अपने लाभ को न देखें, बल्कि उसका नैतिक प्रभाव और दीर्घकालिक परिणाम भी समझें। यही सच्चा मानव धर्म है – और यही मुक्ति का मार्ग।