भारतीय संस्कृति में प्रेम को केवल एक मानवीय भावना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव माना गया है। जब प्रेम इतना पवित्र हो जाए कि उसमें स्वार्थ, अपेक्षा और वासना की कोई जगह न बचे, तब वही प्रेम पूजा बन जाता है। और जब उस प्रेम में व्यक्ति पूरी तरह से समर्पण कर देता है, तो प्रेमी के रूप में सामने खड़ा व्यक्ति खुद ईश्वर का स्वरूप बन जाता है।यह सवाल अक्सर हमारे मन में आता है—”प्रेम कब पूजा बनता है?” और “प्रेमी कब भगवान?” इसका उत्तर सिर्फ भावनाओं से नहीं, बल्कि जीवन के गहरे अनुभवों से मिलता है।
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प्रेम की शुरुआत: आकर्षण से आराधना तक
प्रेम की शुरुआत अक्सर आकर्षण से होती है—चेहरे से, स्वभाव से या फिर किसी आदत से। लेकिन जब यह आकर्षण धीरे-धीरे भावनात्मक जुड़ाव और आत्मिक समर्पण में बदल जाता है, तब व्यक्ति सिर्फ प्रेमी नहीं रह जाता, वह आराधक बन जाता है।उदाहरण के लिए, मीरा बाई का प्रेम श्रीकृष्ण से था। यह प्रेम सांसारिक नहीं था, बल्कि पूर्ण भक्ति और समर्पण का प्रतीक था। मीरा ने अपने कृष्ण को केवल प्रेमी नहीं, भगवान मान लिया। यही वह क्षण था जब प्रेम पूजा बन गया और प्रेमी ईश्वर।
जब प्रेम में स्वार्थ नहीं रहता, तब वह भक्ति बनता है
प्रेम का सबसे सुंदर रूप वह होता है जिसमें “मैं” और “मेरा” मिट जाते हैं। जब प्रेम में ‘स्व’ का भाव नहीं रह जाता, तब वह ‘परम’ की ओर बढ़ता है। यही वजह है कि कबीर, तुलसी, राधा, सूरदास जैसे भक्तों ने अपने ईश्वर को प्रेमी के रूप में देखा।राधा-कृष्ण का प्रेम भले ही ‘प्रेम कथा’ के रूप में जाना जाए, लेकिन असल में वह भक्ति का चरम उदाहरण है। राधा का कृष्ण से प्रेम इतना गहरा और पवित्र था कि उन्होंने उन्हें केवल प्रेमी नहीं, बल्कि अपना आराध्य बना लिया। उस प्रेम में न वासना थी, न अधिकार—केवल समर्पण था।
प्रेम में यदि धैर्य है, तो वह साधना है
सच्चा प्रेम केवल साथ में रहने या पाने का नाम नहीं है। कभी-कभी प्रेम का सबसे सच्चा रूप ‘दूरी’ में प्रकट होता है। जब व्यक्ति बिना मिले, बिना देखे, केवल एहसास के सहारे प्रेम करता है, तो वह प्रेम पूजा बन जाता है।एक साधक की तरह वह अपने प्रेमी के विचारों में लीन रहता है, हर सांस में उसी का नाम लेता है। ठीक उसी तरह जैसे भक्त अपने भगवान को हर क्षण याद करता है।
जब प्रेम प्रेरणा बनता है, तब प्रेमी भगवान बन जाता है
भगवान वह नहीं जो केवल मंदिर में विराजमान हो, बल्कि वह है जो हमारे जीवन को दिशा दे, हमें ऊंचाइयों पर पहुंचाए, हमारे भीतर के अंधकार को प्रकाश में बदले। अगर आपका प्रेमी आपको बेहतर इंसान बना रहा है, आपको प्रेरित कर रहा है, आत्मा को शांति दे रहा है—तो वह केवल प्रेमी नहीं, भगवान का ही रूप है।इस संदर्भ में महाकवि तुलसीदास की पत्नी रत्नावली का एक संवाद प्रसिद्ध है—
“अस्थि चर्म मय देह मम, तामें ऐसी प्रीति,
होती जो राम से, तो काहे भव-भीति।”
(यदि मेरे इस शरीर से इतनी प्रीति है, तो यदि वही राम से होती तो जीवन मुक्त हो जाता।)यही भाव है जब एक सामान्य व्यक्ति हमें ईश्वर की ओर प्रेरित कर दे, तब वह प्रेमी नहीं, भगवान बन जाता है।
आधुनिक समाज में यह भावना कहां है?
आज प्रेम तेजी से “इंस्टैंट रिलेशनशिप” और “सोशल मीडिया एप्रूवल” का रूप ले चुका है। जहां पहले प्रेम साधना था, वहां आज वह ‘स्टेटस अपडेट’ बन गया है। ऐसे में पूजा जैसा समर्पण या प्रेमी को भगवान समझने की भावना लुप्त होती जा रही है।फिर भी, यदि हम प्रेम को केवल पाने का नहीं, बल्कि देने का माध्यम मान लें, तो आज भी प्रेम पूजा बन सकता है।
प्रेम और ईश्वर के बीच की संकरी लेकिन गहरी राह
भारतीय दर्शन कहता है कि ईश्वर तक पहुंचने के तीन प्रमुख मार्ग हैं—ज्ञान, कर्म और भक्ति। इनमें भक्ति मार्ग सबसे सरल लेकिन सबसे कठिन भी है, क्योंकि इसमें पूरा समर्पण चाहिए। जब कोई व्यक्ति अपने प्रेम को ही भगवान मान लेता है, तो वह भक्ति मार्ग पर चल रहा होता है।वह प्रेम अब एक सांसारिक अनुभव नहीं रहता, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा बन जाता है—जहां अंत में प्रेमी और भगवान एक हो जाते हैं।