कभी प्रेम को जीवन की सबसे शुद्ध भावना माना जाता था — बिना किसी स्वार्थ के, निस्वार्थ समर्पण। लेकिन आज के आधुनिक समय में प्रेम एक ऐसी जटिल परिभाषा बन गया है जिसमें भावनाओं से ज्यादा सौदे, अपेक्षाएं और स्थितियां अहम हो गई हैं। रिश्तों की गहराई कम होती जा रही है और उनका अस्तित्व एक टिकाऊ समझौते की तरह दिखाई देता है। सवाल ये उठता है — क्या आज का प्रेम वास्तव में प्रेम है या एक लेन-देन की प्रक्रिया?
बदलता सामाजिक परिवेश और आधुनिक सोच
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में लोग अपने करियर, सोशल स्टेटस और व्यक्तिगत आकांक्षाओं को इतना प्राथमिकता देने लगे हैं कि रिश्तों में धैर्य और समर्पण की भावना धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। पहले जहां प्यार का मतलब था साथ चलना, अब वह हो गया है — “अगर तुम ये नहीं दे सकते तो मैं ये क्यों दूं?” रिश्तों में ‘इन्वेस्टमेंट’ और ‘रिटर्न’ का गणित बिठाया जा रहा है।प्रेम अब एक भाव नहीं, बल्कि एक प्रोजेक्ट बन गया है जिसे मापने की कोशिश की जाती है — समय, उपहार, सोशल मीडिया पोस्ट्स, और सबसे बढ़कर, आर्थिक स्थिति के आधार पर।
सोशल मीडिया: प्यार का दिखावा या दबाव?
आज के समय में सोशल मीडिया ने रिश्तों को और भी ज्यादा जटिल बना दिया है। पहले प्रेम पत्र होते थे जो दिल से निकलते थे, अब इंस्टाग्राम रील्स और व्हाट्सऐप स्टेटस से प्रेम का प्रदर्शन होता है। अक्सर लोग दूसरों के रिश्तों की चमक देखकर अपने रिश्ते को कमजोर मानने लगते हैं। तुलना का यह जाल संबंधों में असंतोष पैदा करता है। लोग अब रिश्तों को जीते नहीं, बल्कि उन्हें दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं।
आत्मकेंद्रित जीवनशैली
व्यक्तिवाद की भावना भी रिश्तों को प्रभावित कर रही है। “मेरे लिए क्या बेहतर है” — इस सोच ने “हमारे लिए क्या सही है” को पीछे छोड़ दिया है। स्वाभाविक है कि जब दो लोग साथ होते हैं, तो टकराव होंगे, मतभेद होंगे, लेकिन आजकल रिश्तों में इनसे निपटने का धैर्य नहीं बचा। छोटी-छोटी बातों पर रिश्ते टूट जाते हैं क्योंकि दोनों पक्ष अपनी-अपनी ‘स्पेस’ और ‘इगो’ से बाहर नहीं निकलना चाहते।
आर्थिक संतुलन और स्वार्थ
प्रेम में अब भावनाओं से ज्यादा आर्थिक स्थिरता को देखा जाता है। लड़का कितना कमाता है? लड़की कितनी स्वतंत्र है? क्या वे भविष्य में एक ‘स्टेबल कपल’ बन सकते हैं? ये सवाल अब भावनाओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। प्रेम अब उस अवस्था से दूर हो गया है जहां ‘हम’ अहम था, अब ‘मैं’ ही प्राथमिक बन चुका है। रिश्ते अब भावनाओं की साझेदारी नहीं बल्कि स्वार्थ की साझेदारी बनते जा रहे हैं।
रिश्तों में संवाद की कमी
टूटते रिश्तों की सबसे बड़ी वजह संवाद की कमी है। लोग बातें करना बंद कर देते हैं, या फिर सिर्फ अपनी बातें कहते हैं, सुनते नहीं। सोशल मीडिया पर घंटों बिताने वाले कपल्स आमने-सामने बैठकर दिल की बात करने में झिझक महसूस करते हैं। संवाद न होने से गलतफहमियां जन्म लेती हैं और धीरे-धीरे वे इतनी बड़ी हो जाती हैं कि रिश्ता संभालना मुश्किल हो जाता है।
समय की कमी या प्राथमिकता की कमी?
कई लोग कहते हैं कि आज समय नहीं है, इसलिए रिश्ते नहीं निभा पाते। लेकिन सच्चाई ये है कि जिस चीज को आप प्राथमिकता देते हैं, उसके लिए समय खुद-ब-खुद निकल आता है। जब रिश्ते प्राथमिकता नहीं बनते, तब समय की कमी एक बहाना बन जाती है। प्रेम के लिए सिर्फ इमोशनल कनेक्शन ही नहीं, समय, समर्पण और समझदारी भी जरूरी है।
असली प्रेम क्या है?
असली प्रेम वो है जो बिना शर्त के हो। जिसमें न लाभ की अपेक्षा हो, न हानि का डर। जहां कोई दिखावा न हो, बस एक सच्चा जुड़ाव हो। जब आप किसी की कमज़ोरियों को स्वीकार करते हुए भी उन्हें अपनाते हैं, तब वो प्रेम होता है। आज के समय में जरूरत है कि लोग प्रेम को एक निवेश की तरह नहीं, एक अनुभव की तरह देखें। जब प्रेम में नफा-नुकसान की गणना बंद होगी, तभी संबंधों में स्थायित्व आएगा।
आज के युग में प्रेम एक चुनौती बन चुका है, क्योंकि यह भावनाओं से अधिक परिस्थितियों और सुविधाओं से जुड़ गया है। रिश्तों में सच्चाई, संवाद, सहनशीलता और निस्वार्थ भावना की कमी ही उन्हें कमजोर बना रही है। अगर हम चाहें कि प्रेम फिर से उसी पवित्रता के साथ जिया जाए जैसे पहले के समय में होता था, तो जरूरी है कि हम रिश्तों को समय दें, ईमानदारी से निभाएं और प्रेम को फिर से “प्रेम” रहने दें, सौदे नहीं।अगर आप इस विषय को एक सीरीज के तौर पर आगे बढ़ाना चाहें — जैसे “आधुनिक रिश्तों की चुनौतियां”, “टूटते विवाह का मनोविज्ञान”, “सोशल मीडिया बनाम सच्चा प्रेम” — तो मैं मदद कर सकता हूँ। बताइए।