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ओशो के अनुसार अहंकार को क्यों नहीं त्यागा जा सकता ? 2 मिनट के इस वीडियो में जाने ऐसा क्यों नहीं सम्भव

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मानव जीवन की सबसे जटिल और अदृश्य परतों में से एक है — अहंकार। प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक मनोविज्ञान तक, हर स्तर पर इसे समझने और त्यागने की सलाह दी गई है। लेकिन क्या अहंकार को वास्तव में छोड़ा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर ओशो जैसे आध्यात्मिक विचारक पूरी स्पष्टता से देते हैं — “अहंकार को त्यागा नहीं जा सकता, क्योंकि त्यागने वाला स्वयं अहंकार है।”यह कथन सुनने में जितना सरल लगता है, उतनी ही गहराई इसमें छिपी होती है। ओशो का दृष्टिकोण न केवल पारंपरिक सोच को चुनौती देता है, बल्कि एक बिल्कुल नया दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करता है। आइए जानें, ओशो के विचारों के माध्यम से, अहंकार की प्रकृति क्या है, और इसे क्यों ‘छोड़ना’ एक भ्रम मात्र है।

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अहंकार क्या है? — ओशो की व्याख्या
ओशो के अनुसार, अहंकार कोई वस्तु नहीं है जिसे कहीं रख दिया गया हो या जिसे उठाकर बाहर फेंका जा सके। यह एक धारणा, एक कल्पना, एक छाया है — जो “मैं” की भावना से उपजती है। वह कहते हैं, “अहंकार वस्तु नहीं है, यह तो तुम्हारी चेतना में एक परछाई है। जब तुम कहते हो ‘मैं हूँ’, तभी अहंकार जन्म लेता है।”ओशो इसे एक मनोवैज्ञानिक संरचना मानते हैं, जो बचपन से ही समाज, शिक्षा, परिवार और संस्कारों के माध्यम से हमारे भीतर धीरे-धीरे निर्मित होती है। यह हमारी ‘छवि’ है — जैसी हम दूसरों को दिखाना चाहते हैं या खुद को मानते हैं। इसमें पद, प्रतिष्ठा, धर्म, जाति, ज्ञान और यहां तक कि आध्यात्मिकता भी शामिल हो सकती है।

त्याग का भ्रम — अहंकार की चाल
अब सवाल आता है — जब यह अहंकार इतना बड़ा बोझ है तो इसे छोड़ा क्यों नहीं जा सकता?ओशो की सबसे मौलिक बात यह है कि “जिस क्षण तुम कहते हो — ‘मैं अहंकार छोड़ रहा हूँ’, उसी क्षण ‘मैं’ फिर से सक्रिय हो गया।” यानी जो ‘त्याग’ रहा है, वही स्वयं अहंकार है। यह अहंकार का सूक्ष्म रूप है, जो ‘त्यागकर्ता’ बनकर और भी मजबूत हो जाता है। ओशो इसे “spiritual ego” यानी “आध्यात्मिक अहंकार” कहते हैं, जो सबसे खतरनाक होता है, क्योंकि वह दिखने में पवित्र और त्यागमय होता है, लेकिन भीतर से और भी जड़ बन चुका होता है।वह कहते हैं, “त्याग की भावना, जब तक उसमें ‘मैं’ बना हुआ है, वह अहंकार से मुक्ति नहीं बल्कि उसकी और भी गहरी गिरफ़्त है।”

तो फिर समाधान क्या है?
ओशो त्याग की जगह साक्षीभाव (witnessing) की बात करते हैं। वह कहते हैं कि अहंकार से लड़ने की ज़रूरत नहीं है, और न ही उसे दबाने या छोड़ने की। इसकी बजाय उसे देखना है — पूरे होश के साथ।जब व्यक्ति अपने भीतर उठने वाले ‘मैं’ भाव को सिर्फ देखता है — बिना उससे एकाकार हुए, बिना उसे स्वीकार या अस्वीकार किए — तब एक बिंदु आता है जहां वह स्वयं-बुझने लगता है।“सिर्फ देखो, जैसे कोई ध्यानस्थ दर्शक हो। जैसे किसी और की फिल्म देख रहे हो। और अचानक तुम पाओगे कि अहंकार की पकड़ ढीली पड़ रही है। यह कोई युद्ध नहीं है, यह जागरण है।”

समाज और अहंकार
ओशो मानते हैं कि समाज अहंकार को ही बढ़ावा देता है — सम्मान, पुरस्कार, प्रतिस्पर्धा, श्रेष्ठता की भावना — सब कुछ इस ‘मैं’ को पोषण देता है। यहां तक कि आध्यात्मिक मार्ग भी, अगर गलत ढंग से अपनाया जाए, तो अहंकार की पुष्टि का माध्यम बन सकता है।वह चेतावनी देते हैं कि “ध्यान करना है, साधना करनी है, लेकिन उसके पीछे यह भावना नहीं होनी चाहिए कि ‘मैं ध्यान करने वाला हूँ’, ‘मैं बहुत ऊंचा साधक हूँ’ — नहीं तो अहंकार वहीं छिपा बैठा मिलेगा।”

निष्कर्ष: न त्यागो, न पकड़ो — बस देखो
ओशो के अनुसार, अहंकार को न तो पकड़ा जा सकता है और न ही छोड़ा जा सकता है। यह तब तक मौजूद रहता है, जब तक तुम उसे ‘कुछ’ मानते हो। लेकिन जैसे ही तुम जागरूक होकर उसे देखना शुरू करते हो — बिना पहचान बनाए, बिना भागे, बिना दबाए — वह खुद ब खुद मिटने लगता है।इसलिए उनका संदेश साफ है — “अहंकार से मत लड़ो, बस जागो।” यही मार्ग है शुद्ध आत्मबोध की ओर।

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