प्रेम एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर प्राचीन काल से ही मानव चिंतन का केंद्र रहा है। हर युग में दार्शनिकों, संतों और विचारकों ने प्रेम के स्वरूप और महत्व को समझने की कई कोशिशें की हैं। प्रेम केवल एक भावना नहीं, बल्कि जीवन का आधार और सार भी माना जाता है।
प्रेम के विभिन्न रूप
हम ‘प्रेम’ शब्द का प्रयोग अपने रोजमर्रा के जीवन में अलग-अलग संदर्भों में करते हैं। माता-पिता और बच्चों के बीच का प्रेम, भाई-बहन या रिश्तेदारों के बीच का प्रेम, मित्रों का प्रेम, देश के प्रति प्रेम, यहां तक कि अपनी संपत्ति और पालतू जानवरों के प्रति लगाव को भी प्रेम ही कहा जाता है। आमतौर पर जब प्रेम की बात होती है तो सबसे पहले हम स्त्री-पुरुष के आपसी प्रेम को ही याद करते हैं। हालांकि, प्रेम का स्वरूप इससे कहीं व्यापक और गहरा होता है।
प्रेम की समानताएं
प्रेम के हर रूप में कुछ न कुछ समान गुण होते हैं। जिस वस्तु, व्यक्ति या भावना से हम प्रेम करते हैं, उससे हमारा गहरा लगाव होता है। हमें उसकी आवश्यकता होती है, और साथ ही डर भी रहता है कि कहीं वह हमसे छूट न जाए। चाहे वह परिवार हो, मित्र हों, देश हो या कोई वस्तु — प्रेम में यह लगाव और मोह सदैव मौजूद रहता है।
बाहरी और सच्चा प्रेम
संत-महापुरुष बताते हैं कि दुनिया का बाहरी प्रेम सीमित और क्षणिक होता है। वास्तविक और सदा-सदा का प्रेम केवल प्रभु अर्थात् ईश्वर से ही प्राप्त होता है। प्रभु के प्रति प्रेम पाने के लिए हमें सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति प्रेम जगाना होगा। अधिकांश लोग अपने परिवार और मित्रों तक ही प्रेम सीमित रखते हैं, लेकिन आध्यात्मिक प्रगति के साथ हमारा हृदय बड़ा होता जाता है। हम अपने समाज, देश और अंततः समस्त ब्रह्मांड के लिए प्रेम विकसित करते हैं। प्रेम की अंतिम अवस्था ब्रह्मांड की संपूर्ण सृष्टि के लिए प्रेम है।
सृष्टि के प्रति व्यापक प्रेम
जब हम अपने परिवार और मित्रों के प्रति प्रेम का आनंद अनुभव करते हैं, तब इसका विस्तार कर समस्त सृष्टि के प्रति प्रेम कर पाना हमारे लिए एक दिव्य अनुभव होता है। यह प्रेम पवित्र और आध्यात्मिक होता है। यह दिव्य-प्रेम आत्मा को परमात्मा से पुनः एकीकृत करने की इच्छा और लगन है।
प्रभु का प्रेम और आत्माओं के प्रति स्नेह
प्रभु सब आत्माओं के पिता हैं। आत्माएं जीवन के अनेक जन्मों से गुजरती रहती हैं, और प्रभु प्रत्येक आत्मा का स्नेहपूर्वक ध्यान रखते हैं। माता-पिता के समान, जो अपने सभी बच्चों से प्रेम करते हैं, प्रभु भी हर आत्मा से प्रेम करते हैं। वे प्रतीक्षा करते हैं कि आत्मा कब अपना ध्यान उनकी ओर लगाएगी और वापस अपने सच्चे घर, अर्थात् प्रभु के पास लौटेगी।
निष्कर्ष
प्रेम न केवल एक भावनात्मक या सामाजिक बंधन है, बल्कि इसका आध्यात्मिक आयाम भी गहरा है। सच्चा प्रेम वह है जो सीमाओं को पार कर सृष्टि के समस्त जीवों के लिए हो। जब हमारा प्रेम इतना व्यापक हो जाता है कि हम सम्पूर्ण ब्रह्मांड को अपना समझें, तभी हम प्रभु के प्रति सच्चे प्रेम की अनुभूति कर पाते हैं। यही प्रेम हमें आत्मा की गहन एकता और शाश्वत सुख का अनुभव कराता है।
इस प्रकार, प्रेम की यात्रा केवल बाहरी संबंधों की नहीं, बल्कि आत्मा की परमात्मा के साथ पुनर्मिलन की भी है। यह अनंत और दिव्य प्रेम हर इंसान के जीवन का परम लक्ष्य हो सकता है।