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कुछ मिनटों के इस वायरल वीडियो में जानिए क्या होता है सच्चा प्रेम और कैसी होती है इसकी अनुभूति ?

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प्रेम—एक ऐसा शब्द जो जितना सरल दिखता है, उतना ही गहराई से भरा और रहस्यमय होता है। हर इंसान अपने जीवन में प्रेम को किसी न किसी रूप में खोजता है—कभी रिश्तों में, कभी आत्मा में, और कभी परमात्मा में। लेकिन क्या वास्तव में हम जानते हैं कि सच्चा प्रेम क्या होता है? ओशो, जो आधुनिक युग के सबसे प्रभावशाली आध्यात्मिक विचारकों में से एक माने जाते हैं, उन्होंने प्रेम को केवल एक भावना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव बताया है।

प्रेम—मुक्ति है बंधन नहीं
ओशो के अनुसार, प्रेम कोई अनुबंध नहीं होता जिसे समाज, धर्म या रिश्तों की परिभाषा से बाँध दिया जाए। सच्चा प्रेम किसी शर्त या अपेक्षा पर आधारित नहीं होता। वह कहते हैं, “प्रेम एक फूल की तरह है, उसे खिलने दो, उसे मत पकड़ो।” जब आप प्रेम को पकड़ने की कोशिश करते हैं, तो वह बंधन बन जाता है। लेकिन जब आप उसे स्वतंत्र रूप में स्वीकार करते हैं, तब वह एक आनंद और स्वतंत्रता का स्रोत बन जाता है।

अनुभूति—मन से नहीं, हृदय से
सच्चे प्रेम की अनुभूति केवल दिमाग से नहीं, बल्कि हृदय से होती है। ओशो का मानना था कि प्रेम को सोच कर नहीं, बल्कि पूरी चेतना से अनुभव किया जाना चाहिए। यह एक ऐसा क्षण होता है जब आपका अहंकार समाप्त हो जाता है, और आप पूरी तरह दूसरे के लिए उपलब्ध हो जाते हैं—बिना किसी डर, संदेह या स्वार्थ के।वे कहते हैं, “प्रेम तब होता है जब तुम खुद को भूल जाते हो और केवल दूसरे के अस्तित्व में समा जाते हो।” यह अनुभूति इतनी गहन होती है कि व्यक्ति खुद को नहीं, बल्कि एकता का अनुभव करता है—जहाँ न तुम हो, न वो, बस एक ‘हम’ होता है।

प्रेम में सुरक्षा नहीं, समर्पण होता है
आज के समय में लोग प्रेम में सुरक्षा खोजते हैं—एक ऐसा रिश्ता जिसमें धोखा न मिले, भावनाएं सुरक्षित रहें, और भविष्य स्थिर हो। लेकिन ओशो कहते हैं कि सच्चा प्रेम किसी सुरक्षा की तलाश नहीं करता, वह पूरी तरह से समर्पण मांगता है। यह समर्पण डर से नहीं, बल्कि विश्वास से आता है।वह कहते हैं, “अगर तुम प्रेम में हो, तो खुद को पूरी तरह झोंक दो, फिर चाहे परिणाम जो भी हो।” यह विचार इस बात की ओर संकेत करता है कि प्रेम किसी गारंटी का नाम नहीं, बल्कि पूर्ण स्वीकृति का नाम है।

प्रेम—एक ध्यान है
ओशो ने प्रेम को एक ध्यान (meditation) की तरह माना है। जब कोई व्यक्ति पूरी उपस्थिति और समर्पण के साथ प्रेम करता है, तो वह एक ध्यान की अवस्था में पहुंच जाता है। यह अवस्था व्यक्ति को ईश्वर से जोड़ती है। ओशो का मानना था कि प्रेम अगर पूरी प्रामाणिकता और जागरूकता से किया जाए, तो वह ध्यान बन जाता है।

प्रेम और मोह में अंतर
कई बार लोग प्रेम और मोह को एक समझ लेते हैं। ओशो इस भ्रम को तोड़ते हुए स्पष्ट करते हैं कि मोह में भय, असुरक्षा और स्वार्थ होता है, जबकि प्रेम में स्वतंत्रता, विश्वास और स्वीकार्यता होती है। वे कहते हैं, “जहाँ बंदिश है, वह प्रेम नहीं; जहाँ स्वतंत्रता है, वही सच्चा प्रेम है।”

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