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क्यों होती हैं महिलाएं पुरुषों से अधिक भावुक? 2 मिनट के लीक्ड फुटेज में जानिए औरतों की छिपी हुई कमजोरियां

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समाज में अक्सर महिलाओं को उनके कोमल हृदय, भावनात्मक स्वभाव और रिश्तों में गहराई से जुड़े होने के लिए जाना जाता है। कई मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक भावुक होती हैं। हालांकि यह भावुकता ही उनकी ताकत भी है, लेकिन इसी भावुकता के पीछे छिपी होती हैं कुछ ऐसी कमजोरियां, जिन्हें महिलाएं खुद भी पूरी तरह नहीं समझ पातीं।

भावनात्मक जुड़ाव बनाता है उन्हें संवेदनशील

महिलाएं रिश्तों में दिल से जुड़ती हैं। वे न केवल परिवार बल्कि दोस्तों, सहकर्मियों और सामाजिक दायरे में भी भावनात्मक रूप से एक गहरा संबंध बना लेती हैं। यह जुड़ाव उन्हें अत्यधिक संवेदनशील बना देता है। जब ये रिश्ते टूटते हैं या उनमें खटास आती है, तो महिलाएं उसे लंबे समय तक अपने मन पर हावी रखती हैं। वे अक्सर अपनी भावनाओं को दूसरों के सामने व्यक्त नहीं कर पातीं और इसी कारण वह पीड़ा भीतर ही भीतर उन्हें कमजोर बना देती है।

खुद को भूल जाना

कई महिलाएं दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी ढूंढ़ती हैं। वे मां, पत्नी, बहन या बेटी बनकर इतनी ज्यादा ज़िम्मेदारियों को ओढ़ लेती हैं कि खुद के लिए समय निकालना ही भूल जाती हैं। उन्हें यह तक नहीं पता चलता कि कब उन्होंने अपनी पसंद-नापसंद, इच्छाएं, सपने और आराम को पीछे छोड़ दिया। यह स्वाभाविक आत्मबलिदान, जब आदत बन जाता है, तो धीरे-धीरे वह खुद की भावनात्मक ज़रूरतों को अनदेखा करने लगती हैं।

निर्णय लेने में असमंजस

महिलाएं स्वभाव से सोच-विचार करने वाली होती हैं। वे किसी भी निर्णय से पहले उसके सभी पहलुओं पर सोचती हैं — कौन क्या सोचेगा, किसे चोट पहुंचेगी, इसका क्या असर होगा। यह उनका सोचने का दायरा तो दर्शाता है, लेकिन कई बार यह गुण ही उनके लिए कमजोरी बन जाता है। अत्यधिक सोच के कारण वे निर्णय लेने में संकोच करती हैं या बार-बार अपने फैसले को लेकर असुरक्षित महसूस करने लगती हैं।

आत्म-संकोच और आत्म-संदेह

बहुत-सी महिलाएं अपने रूप, बोलचाल, शरीर या व्यवहार को लेकर भीतर से असुरक्षित महसूस करती हैं। खासतौर पर जब समाज में सौंदर्य या आदर्श महिला की एक परिभाषा थोप दी जाती है, तब बहुत-सी महिलाएं उसमें फिट न बैठने पर खुद को कम आंकने लगती हैं। यह आत्म-संदेह उन्हें अपनी असली क्षमताओं को पहचानने से रोकता है।

दूसरों की अपेक्षाओं का बोझ

महिलाएं अक्सर समाज, परिवार और रिश्तों से जुड़ी कई अपेक्षाओं का बोझ अपने कंधों पर ढोती हैं। “अच्छी बहू”, “त्यागमयी मां”, “संस्कारी बेटी” या “आदर्श पत्नी” बनने की कोशिश में वे अपनी असली पहचान खो बैठती हैं। यह बोझ धीरे-धीरे मानसिक थकान और भावनात्मक कमजोरी में बदल जाता है, जिससे वे खुद को कभी-कभी बहुत अकेला और टूटा हुआ महसूस करती हैं।

परफेक्शन की चाह

बहुत-सी महिलाएं हर काम में परफेक्शन चाहती हैं – चाहे वह ऑफिस का काम हो या घर का, बच्चों की देखभाल हो या रिश्तों को निभाना। इस आदर्श स्थिति को पाने की चाह में वे खुद को अनजाने में बहुत मानसिक दबाव में ले आती हैं। जब कभी चीजें उनकी उम्मीद के अनुसार नहीं होतीं, तो उन्हें खुद पर गुस्सा आता है और वे खुद को दोषी मानने लगती हैं।

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