हम में से हर कोई अपने जीवन में सफलता और सुख की कामना करता है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि मेहनत और संघर्ष के बाद मिलने वाला सुख और उपलब्धि जीवन को सार्थक बनाते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जब हमें यह सब मिलता है, तब असली परीक्षा शुरू होती है – अहंकार की परीक्षा।
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जब सफलता बनती है आत्ममूल्यांकन का दर्पण
सफलता सिर्फ उपलब्धियों का नाम नहीं है, बल्कि यह एक चुनौतीपूर्ण दर्पण है जो हमारे भीतर के चरित्र को दर्शाता है। जब व्यक्ति सफल होता है, उसके पास शक्ति, मान-सम्मान और संसाधन आते हैं। यहीं से शुरू होती है उसकी असली परीक्षा – क्या वह सफलता को अपने आत्मविकास का माध्यम बनाएगा या फिर उसमें डूबकर अहंकार में डूब जाएगा?अक्सर देखने को मिलता है कि जैसे ही कोई व्यक्ति ऊँचाई पर पहुँचता है, वह खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है। यह मानसिकता धीरे-धीरे ‘अहंकार’ का रूप ले लेती है – एक ऐसा भाव जो न केवल संबंधों को तोड़ता है, बल्कि आत्मा की शांति को भी नष्ट कर देता है।
सुख का असली रूप और उसकी चुनौती
सुख तब भी एक बड़ी परीक्षा बनता है जब वह लगातार मिलने लगता है। जब जीवन में दुख और कठिनाइयाँ आती हैं, तब इंसान विनम्र हो जाता है, दूसरों की मदद मांगता है और अपने सीमित स्वरूप को स्वीकार करता है। लेकिन जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो, जब हर कार्य सफल हो रहा हो, जब लोग प्रशंसा करें और दुनिया सराहे – तब व्यक्ति खुद को “ईश्वर तुल्य” समझने की भूल कर बैठता है।यह अहं भाव धीरे-धीरे इंसान को आत्मकेन्द्रित बना देता है। वह दूसरों की सलाह को अनदेखा करने लगता है, अपनों को नजरअंदाज करता है और अपने फैसलों को सर्वोपरि मानने लगता है। यही वह क्षण होता है, जब सुख और सफलता, व्यक्ति के लिए वरदान की जगह परीक्षा-पत्र बन जाते हैं।
धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण
भारतीय दर्शन और ग्रंथों में बार-बार यह बात दोहराई गई है कि “अहंकार विनाश का कारण है।” चाहे रावण हो, कौरव हों या दुर्योधन – इन सबका पतन उनके अहंकार की वजह से ही हुआ। जब तक व्यक्ति नम्र रहता है, उसकी सफलता उसे और ऊँचाई देती है। लेकिन जब वही सफलता उसे अंधा कर देती है, तो वह खुद अपने विनाश की राह चुन लेता है।भगवद गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “अहंकार मत करो, क्योंकि यह तुम्हें सत्य से दूर ले जाएगा।” यही संदेश आधुनिक जीवन में भी उतना ही प्रासंगिक है।
सफलता को कैसे संभालें ताकि वह विनम्रता में बदले?
आत्मविश्लेषण करें: नियमित रूप से खुद से यह प्रश्न करें – क्या मेरी सफलता मुझे दूसरों से दूर कर रही है? क्या मैं अब दूसरों की बातें कम सुनता हूँ?
कृतज्ञता का अभ्यास करें: अपने जीवन में उन सभी लोगों को याद करें जिन्होंने किसी न किसी मोड़ पर आपका साथ दिया। यह भाव अहंकार को मिटाकर विनम्रता लाता है।
संतुलन बनाए रखें: सफलता के शिखर पर पहुँचने के बाद भी अपने पुराने दोस्तों, परिवार और सहयोगियों के साथ जुड़ाव बनाए रखें। ये लोग आपको आपकी जड़ों से जोड़े रखेंगे।
ध्यान और साधना का सहारा लें: मानसिक संतुलन और आत्म-नियंत्रण के लिए योग, ध्यान और आध्यात्मिक पाठ अत्यंत सहायक होते हैं।
अहंकार का प्रभाव केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता
जब एक व्यक्ति अपने अहंकार में डूबता है, तो उसका असर सिर्फ उस पर ही नहीं, बल्कि पूरे समाज, संस्था और परिवार पर पड़ता है। एक नेता का अहंकार पूरी व्यवस्था को हिला सकता है, एक व्यवसायी का अहंकार कंपनी को बर्बादी की ओर ले जा सकता है, और एक सामान्य व्यक्ति का अहंकार रिश्तों को खत्म कर सकता है।
सुख और सफलता जीवन के सबसे सुंदर पल होते हैं, लेकिन यही पल इंसान की असली परख भी करते हैं। इन पलों में जो व्यक्ति विनम्रता, संवेदनशीलता और आत्मचिंतन बनाए रखता है, वही लंबे समय तक टिकता है और समाज में सम्मान पाता है। इसलिए कहा गया है –सफलता और सुख व्यक्ति को ऊपर उठाते नहीं हैं, वे तो यह देखने आते हैं कि वह ऊंचाई को संभाल भी सकता है या नहीं।”