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जब सीमाओं या बन्धनों में बंधने लगता है प्रेम तब खो जाता है उसका सौन्दर्य, वीडियो में Osho से जानें क्यों प्रेम को चाहिए स्वतंत्रता ?

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प्रेम एक ऐसी भावना है जो स्वतः प्रवाहित होती है, निस्वार्थ होती है और बंधनों की मोहताज नहीं होती। लेकिन जब यही प्रेम किसी “सीमा” में बांधने की कोशिश की जाती है, तो उसका स्वरूप धीरे-धीरे बदलने लगता है। “प्रेम जब भी किसी सीमा में बंधता, प्रेम हल्का हो जाता” — यह कथन न केवल एक गहरे भाव को प्रकट करता है, बल्कि यह आधुनिक संबंधों की जटिलताओं की भी सटीक व्याख्या करता है।

प्रेम की स्वतंत्रता ही उसकी शक्ति है

प्रेम की खूबसूरती ही उसकी स्वतंत्रता में है। जब प्रेम को बंधन, अपेक्षाओं और सामाजिक ढांचे में ढालने की कोशिश की जाती है, तो वह प्रेम नहीं रह जाता, एक अनुबंध बन जाता है। जहां प्रेम में “तुम मेरे हो”, “तुम सिर्फ मेरे लिए हो”, “तुम्हें ऐसा ही करना होगा” जैसी सीमाएं खींची जाती हैं, वहां धीरे-धीरे भरोसे की जगह नियंत्रण लेने लगता है। परिणामस्वरूप, प्रेम की गहराई हल्की हो जाती है और उसकी आत्मा खोने लगती है।

बंधनों से उपजती है ईर्ष्या और असुरक्षा

जब किसी रिश्ते में सीमाएं बनाई जाती हैं – चाहे वह समय की हों, बातचीत की हों या व्यक्ति की स्वतंत्रता की – वहां ईर्ष्या, असुरक्षा और अधिकार की भावना पनपने लगती है। प्रेम का असली स्वरूप तब ही उभरता है जब वह किसी के व्यक्तित्व को कुचलने की बजाय उसे संवारता है। लेकिन यदि प्रेम में यह भाव आ जाए कि “तुम केवल मेरे हो और किसी और से नहीं जुड़ सकते”, तो यह प्रेम की भावना को बोझिल बना देता है।

सामाजिक परिभाषाएं प्रेम की राह में दीवार

समाज ने प्रेम के लिए ढेरों परिभाषाएं गढ़ रखी हैं – किससे प्रेम करना “उचित” है, किस उम्र में, किस वर्ग या धर्म में, किस रिश्ते के बाहर प्रेम “स्वीकार्य” नहीं है। इन परिभाषाओं में बंधकर प्रेम अपना सहजपन खो बैठता है। एक प्रेम जो केवल दिल की पुकार होनी चाहिए, वह सामाजिक ठप्पों और अनुमतियों में उलझ जाता है। इसीलिए कहा गया है – जब प्रेम पर सीमाओं का पहरा बैठता है, वह धीरे-धीरे बोझ बनता जाता है।

स्वीकृति और स्पेस है सच्चे प्रेम की बुनियाद

प्रेम तब ही गहराता है जब उसमें स्वीकृति होती है – अपने प्रेमी की कमजोरियों को, उनकी प्राथमिकताओं को और उनकी स्वतंत्रता को। प्रेम कोई गुलामी नहीं, यह एक साझा उड़ान है जहां दोनों को अपने पंख फैलाने का हक हो। सच्चा प्रेम वह है जो किसी को अपने जैसा बनाने की कोशिश नहीं करता, बल्कि जैसा वह है – उसी रूप में उसे स्वीकार करता है।

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