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महाभारत में कर्ण को पूर्वजन्म में मारने के लिए अर्जुन और कृष्ण ने लिए थे कई जन्म लेकिन इस कारण से नहीं हो पाए सफल

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महाभारत केवल एक युद्धगाथा नहीं, बल्कि कर्म, पुनर्जन्म और नियति की गहराइयों से जुड़ी एक दिव्य रचना है। इसके कई पात्र केवल एक युग के नहीं बल्कि अनेक जन्मों के रहस्य अपने भीतर समेटे हुए हैं। इन्हीं में से एक पात्र हैं – कर्ण, जिन्हें महाभारत में वीरता, दानशीलता और करुणा का प्रतीक माना जाता है। पर क्या आप जानते हैं कि कर्ण और अर्जुन का टकराव केवल द्वापर युग तक सीमित नहीं था? यह संघर्ष कई जन्मों का था — एक असुर और तपस्वियों के बीच का युद्ध, जो अंततः कुरुक्षेत्र के मैदान में निर्णायक रूप में सामने आया।

पूर्वजन्म में असुर थे कर्ण

कर्ण का जन्म वास्तव में द्वापर युग में नहीं, बल्कि उससे बहुत पहले हुआ था। वे अपने पूर्वजन्म में एक असुर थे — दंभोद्भवा। दंभोद्भवा एक शक्तिशाली असुर था, जिसे सूर्यदेव से अद्भुत वरदान मिला था। सूर्यदेव ने उसे 100 कवच और कुंडल दिए थे, और वचन दिया था कि जो भी इन कवच-कुंडलों को तोड़ेगा, उसकी मृत्यु निश्चित होगी। यह वरदान पाकर दंभोद्भवा अभिमानी और क्रूर बन गया। वह देवताओं, ऋषियों और साधारण जनों को कष्ट देने लगा।

नर-नारायण ने उठाया युद्ध का संकल्प

दंभोद्भवा के अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवता नर और नारायण के पास गए। नर और नारायण वे ऋषि थे, जो हजारों वर्षों से हिमालय में तपस्या कर रहे थे — वास्तव में ये दोनों श्रीकृष्ण और अर्जुन के पूर्वजन्म थे। जब नर और नारायण को इस संकट का पता चला, तो उन्होंने दंभोद्भवा का अंत करने का संकल्प लिया। नर ने पहले युद्ध किया और दंभोद्भवा का एक कवच तोड़ा, लेकिन वह मारा गया। फिर नारायण ने अपनी शक्ति से नर को पुनर्जीवित किया। इसके बाद नर फिर तपस्या में चले गए और नारायण ने युद्ध जारी रखा। इसी क्रम में दंभोद्भवा के 99 कवच टूटते चले गए, पर वह मारा नहीं गया।

सूर्यदेव ने अपने भक्त को बचाया

जब दंभोद्भवा के 99 कवच टूट गए, तब उसे अपने अंत का भय सताने लगा। वह सूर्यदेव की शरण में गया, जिन्हें वह अपने पिता समान मानता था। सूर्यदेव ने दंभोद्भवा की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपने पीछे छिपा लिया। नर-नारायण जब दंभोद्भवा को मारने आए, तो उन्होंने सूर्यदेव को देखा और सम्मानवश उसे नहीं मारा। लेकिन नर-नारायण ने वचन दिया कि वे द्वापर युग में फिर जन्म लेंगे, और उस समय सूर्यदेव दंभोद्भवा की रक्षा नहीं कर पाएंगे। सूर्यदेव ने यह वचन स्वीकार कर लिया।

द्वापर युग: कर्ण के रूप में हुआ असुर का पुनर्जन्म

दंभोद्भवा ने द्वापर युग में कर्ण के रूप में जन्म लिया। उसकी माता कुंती थीं, और पिता स्वयं सूर्यदेव। कर्ण अपने पूर्वजन्म के अंतिम शेष कवच और कुंडल के साथ पैदा हुआ, जो उसे अजेय बनाते थे। श्रीकृष्ण को पता था कि यह वही आत्मा है जो दंभोद्भवा थी। उन्होंने इंद्रदेव को भेजा, जो कर्ण से उसका कवच-कुंडल मांग लाए। कर्ण ने दानवीरता के कारण अपना रक्षण स्वयं छोड़ दिया।

कुरुक्षेत्र में पूर्वजन्म की प्रतिज्ञा पूरी

कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल पांडवों और कौरवों के बीच नहीं था — यह पूर्वजन्म के संकल्पों और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक था। कृष्ण (नारायण) और अर्जुन (नर) ने युद्ध के मैदान में कर्ण को पराजित किया। जब कर्ण रथहीन और निहत्था हो गया, तब कृष्ण ने अर्जुन से उसे मारने का आदेश दिया। यही वह क्षण था जब पूर्वजन्म की प्रतिज्ञा पूर्ण हुई। अर्जुन ने कर्ण का वध किया और नर-नारायण द्वारा दंभोद्भवा का अंत हुआ।

निष्कर्ष: कर्म और पुनर्जन्म की अटूट श्रृंखला

कर्ण की यह कथा हमें यह सिखाती है कि कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता, और पुनर्जन्म के चक्र में हर आत्मा को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। श्रीकृष्ण और अर्जुन द्वारा कर्ण का वध केवल एक राजनीतिक या रणनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि युगों पुराना अधर्म के अंत का संकल्प था। महाभारत की यह कहानी आज भी हमें याद दिलाती है कि धर्म, सत्य और न्याय की विजय समय चाहे जितना भी लगे, अंततः निश्चित होती है।

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