उज्जैन, मध्यप्रदेश की धार्मिक नगरी, जहां महाकालेश्वर मंदिर की तरह ही एक और अत्यंत शक्तिशाली और रहस्यमयी स्थान है — हरसिद्धि देवी का मंदिर। यह मंदिर सिर्फ आस्था का केंद्र नहीं, बल्कि ऐसी गूढ़ कथाओं का साक्षी भी है जो भारत के सांस्कृतिक इतिहास में अमिट छाप छोड़ती हैं। इन्हीं में एक प्रमुख कथा जुड़ी है उज्जैन के महान सम्राट विक्रमादित्य से, जिनका नाम न सिर्फ विक्रम संवत के रूप में आज भी जीवित है, बल्कि जिनकी भक्ति की मिसालें हर युग में दी जाती रही हैं।
हरसिद्धि: शक्ति और महादेव की संयुक्त अराधना
मान्यता है कि हरसिद्धि देवी की पूजा से एक साथ भगवान महादेव और शक्ति की कृपा प्राप्त होती है। देवी हरसिद्धि को माता सती के 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, जब भगवान शिव माता सती के मृत शरीर को लेकर विलाप करते हुए विचरण कर रहे थे, तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े किए थे, जो जहां-जहां गिरे, वहां शक्तिपीठ बने। उज्जैन स्थित हरसिद्धि मंदिर में माता सती की कोहनी गिरने की मान्यता है।
इस मंदिर का एक विशेष पहलू यह भी है कि हरसिद्धि देवी का एक मंदिर गुजरात के द्वारका में भी है। माना जाता है कि माता की सुबह की पूजा द्वारका में होती है और रात की पूजा उज्जैन में।
विक्रमादित्य की भक्ति और आत्मबलि
राजा विक्रमादित्य की भक्ति हरसिद्धि माता के प्रति इतनी गहरी थी कि उन्होंने अपने जीवन में 12-12 वर्षों के अंतराल पर 11 बार स्वयं अपना शीश काटकर माता को अर्पित किया था। हर बार माता की कृपा से उनका सिर पुनः जुड़ जाता था और वे फिर से जीवित हो जाते थे। यह एक असाधारण तप और भक्ति का प्रमाण है जो इतिहास और किंवदंतियों में अमर है।
लेकिन जब राजा बारहवीं बार अपनी बलि देने माता के चरणों में पहुंचे, तब उनका सिर दोबारा नहीं जुड़ पाया। यह संकेत था कि उनका जीवनकाल अब पूर्ण हो चुका था और इस बार माता ने उन्हें मोक्ष प्रदान कर दिया।
मंदिर में आज भी हैं 11 सिर
हरसिद्धि मंदिर में आज भी एक विशेष स्थान पर 11 सिंदूर लगे मुण्ड रखे हुए हैं। मान्यता है कि ये वही मुण्ड हैं, जो राजा विक्रमादित्य ने माता को अर्पित किए थे। ये प्रतीक हैं उस दिव्य भक्ति, आत्मबलिदान और ईश्वर के प्रति समर्पण के, जो आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं।
हरसिद्धि नाम का रहस्य
हरसिद्धि देवी के नाम के पीछे भी एक रोचक कथा है। कहा जाता है कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण और यादव वंशज इस देवी की पूजा करते थे। माता को उस समय “मंगलमूर्ति देवी” कहा जाता था। जब श्रीकृष्ण ने माता की कठोर तपस्या की और उनकी कृपा से जरासंध का वध किया, तब माता प्रसन्न होकर ‘हरसिद्धि’ नाम से प्रसिद्ध हो गईं। यह नाम यानी “हर को सिद्धि देने वाली” आज भी उनकी महिमा का प्रतीक है।
तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र
हरसिद्धि मंदिर सिर्फ भक्ति का ही नहीं, बल्कि तंत्र साधना का भी एक प्रमुख स्थल माना जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर में साधक तंत्र शक्ति की सिद्धि के लिए विशेष साधनाएं करते हैं। मंदिर का स्थान महाकालेश्वर मंदिर के पश्चिम में स्थित है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उज्जैन तंत्र और शक्ति उपासना दोनों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र रहा है।
निष्कर्ष
राजा विक्रमादित्य और हरसिद्धि माता की यह कथा भक्ति, बलिदान और ईश्वरीय शक्तियों के अद्भुत संगम का प्रतीक है। उज्जैन की यह भूमि केवल धार्मिक ही नहीं, आध्यात्मिक रहस्यों से भी भरी हुई है। राजा विक्रमादित्य की अंतिम आत्मबलि और माता की कृपा की यह कथा आज भी श्रद्धालुओं को अपनी आस्था को मजबूत करने और निःस्वार्थ भक्ति की प्रेरणा देती है।