अगर चार लोग एक मेज पर बैठकर बात कर रहे हों और अचानक कोई बम फट जाए, तो इसे सरप्राइज कहा जाएगा। लेकिन अगर दर्शकों को पहले ही बता दिया जाए कि मेज के नीचे बम रखा है और वह किसी भी क्षण फट सकता है, तो यह दर्शकों के लिए रोमांचकारी होगा… और यही सस्पेंस है। सस्पेंस के जनक के रूप में मशहूर अल्फ्रेड हिचकॉक ने 1962 में एक इंटरव्यू के दौरान अपनी बम थ्योरी दुनिया के सामने पेश की थी। वह एक ऐसे फिल्मकार थे, जिन्हें पर्दे पर सस्पेंस पैदा करने के लिए किसी तामझाम की जरूरत नहीं थी। वह दर्शकों को डराने के लिए मनोविज्ञान को एक उपकरण की तरह इस्तेमाल करते थे। पर्दे पर सस्पेंस दिखाने के लिए वह दर्शकों के मन में डर और अनिश्चितता का माहौल पैदा करते थे, जिसकी नकल आज भी दुनिया भर के फिल्मकार करने से नहीं चूकते। 100 साल पहले ही उन्होंने दुनिया को सस्पेंस और सरप्राइज के बीच का अंतर समझा दिया था। अगर वह आज जिंदा होते, तो उनकी उम्र 125 साल होती। 1899 में लंदन की गलियों में जन्मे हिचकॉक ने दुनिया को सस्पेंस और थ्रिलर के क, ख, ग और घ से परिचित कराया। उन्होंने दुनिया को सिनेमा को एक नए नज़रिए से देखना सिखाया। उनके नज़रिए ने इंसान के अंदर के डर और जिज्ञासा को एक साथ कैद किया। वह हमेशा कहते थे कि दर्शकों को डर का एहसास कराना ज़्यादा ज़रूरी है, बजाय इसके कि उसे पर्दे पर दिखाया जाए।
थ्रिलर फ़िल्मों के अग्रदूत बने हिचकॉक हमेशा कहते थे कि सस्पेंस तभी कारगर साबित होता है जब दर्शक फ़िल्म के किरदारों से ज़्यादा कुछ जानते हों। सस्पेंस का मतलब सिर्फ़ चौंकाना नहीं होता, बल्कि असली सस्पेंस तब होता है जब दर्शकों को पता हो कि कुछ गलत होने वाला है, लेकिन कोई नहीं जानता कि यह कब होगा।
अल्फ्रेड हिचकॉक
उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक इंजीनियरिंग कंपनी में ड्राइंग डिज़ाइनर के रूप में की थी, लेकिन 1920 में किस्मत उन्हें शो बिज़नेस में खींच ले आई। शुरुआत में उन्होंने टाइटल कार्ड डिज़ाइनर के रूप में काम किया, लेकिन फिर सहायक निर्देशक की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद वे निर्देशक की कुर्सी तक पहुँच गए। उनकी पहली फ़िल्म 1925 में आई “द प्लेज़र गार्डन” थी। यह मूक फ़िल्मों का दौर था। लेकिन सिनेमा के उस सन्नाटे में भी उन्होंने अपनी दृश्यात्मक कहानी कहने की कला को पहचान दिलाई थी।हिचकॉक को मानव मन की गहराइयों में उतरने का शौक था। उनका मानना था कि सस्पेंस तभी सफल होगा जब दर्शकों को पता हो कि कुछ बुरा होने वाला है, लेकिन यह कैसे और कब होगा… इसका रहस्य बना रहना चाहिए।
उनकी फ़िल्में अपराध, मनोविज्ञान, मानवीय भावनाओं और नैतिक दुविधाओं के इर्द-गिर्द बुनी जाती थीं। लेकिन “अपराधी कौन है” की अवधारणा को नकारते हुए, उन्होंने पूरी तरह से “उसे कैसे पकड़ा जाए” पर ध्यान केंद्रित किया। उनकी यह प्रयोगधर्मी शैली उन्हें आम थ्रिलर फ़िल्म निर्माताओं से अलग बनाती थी। उनका मानना था कि दर्शकों को खतरे के बारे में पहले से ही सचेत कर देना चाहिए ताकि उनका मन भय और आशा की भावनाओं से पेंडुलम की तरह झूलता रहे।हिचकॉक के फ़िल्में बनाने से पहले, दुनिया भर में बनी सभी सस्पेंस फ़िल्में सिर्फ़ इस बात तक सीमित थीं कि हत्यारा कौन है। लेकिन हिचकॉक ने सस्पेंस को विज्ञान और मनोविज्ञान से जोड़ा। उन्होंने सस्पेंस को “क्या होगा” से बदलकर “कैसे महसूस होगा” में बदल दिया। उन्होंने सस्पेंस को आश्चर्य और डर से पूरी तरह अलग कर दिया।
उन्होंने कहा कि डर का असली मज़ा उसके होने में नहीं, बल्कि उसके इंतज़ार में है। हिचकॉक की वर्टिगो, साइको और रियर विंडो जैसी फ़िल्में दिखाती हैं कि कभी-कभी सबसे बड़ा ख़तरा बाहर नहीं, बल्कि आपके भीतर होता है। उन्होंने पूरी फ़िल्म कहानी के कथानक के इर्द-गिर्द नहीं बुनी, बल्कि किरदारों के मनोविज्ञान और उनकी कमियों पर ज़ोर दिया। वे इस सस्पेंस को इस बात से उभारते थे कि एक आम आदमी असाधारण परिस्थितियों में कैसे प्रतिक्रिया देगा।
हिचकॉक शायद दुनिया के पहले और आज तक के आखिरी फ़िल्मकार हैं, जो अपनी लगभग हर फ़िल्म की शुरुआत में कुछ सेकंड के लिए ज़रूर दिखाई देते थे। फ़िल्म शुरू होते ही दर्शकों की नज़रें हिचकॉक को ढूँढ़ती रहती थीं, कभी बस से उतरते हुए, कभी सड़क पार करते हुए, कभी फ़िल्म के हीरो के बगल में खड़े होकर अख़बार पढ़ते हुए।
हालांकि, इसके पीछे की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। फिल्म में कैमियो के लिए जिस व्यक्ति को सेट पर आना था, वह किसी कारणवश नहीं आ सका, इसलिए हिचकॉक ने वह तीन सेकंड का रोल निभाया। लेकिन दर्शकों को वह चौंकाने वाला तत्व पसंद आया। इसके बाद, हिचकॉक अपनी हर फिल्म की शुरुआत में कुछ सेकंड के लिए स्क्रीन पर दिखाई देने लगे। यह कॉन्सेप्ट इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग सिनेमाघरों में जल्दी पहुँच जाते थे और फिल्म में हिचकॉक के कैमियो की तलाश में रहते थे।
हिचकॉक की खास बात ये थी कि वो तनाव के साथ धीरे-धीरे सस्पेंस भी बनाते थे। 1960 में आई उनकी फिल्म साइको उस दौर की पहली फिल्म थी जिसमें एक लीड किरदार की फिल्म के बीच में ही हत्या कर दी गई थी। दर्शकों के लिए ये चौंकाने वाला एलिमेंट था क्योंकि उसी लीड एक्ट्रेस को देखने के लिए बड़ी संख्या में दर्शक सिनेमा हॉल पहुंचे थे। लेकिन अपने समय की मशहूर एक्ट्रेस जेनेट को फिल्म के बीच में मारने का रिस्क हिचकॉक जैसा डायरेक्टर ही उठा सकता है। ये हिचकॉक के सिनेमा का ही कमाल है कि ये सीन सिनेमाई इतिहास का सबसे मशहूर बाथरूम मर्डर बन गया। लेकिन इस सीन की सबसे खास बात ये थी कि हत्या के दौरान हुई हिंसा को दिखाया नहीं गया बल्कि महसूस कराया गया। जेनेट के शरीर पर चाकू का एक भी वार कैमरे में नहीं दिखाया गया। जेनेट की चीखें और तेज संगीत ने हर फ्रेम में तनाव पैदा किया। ये एक ऐसा शॉवर सीन था जिसने सस्पेंस और थ्रिलर फिल्मों की सूरत हमेशा के लिए बदल दी। दूसरी ओर, हिचकॉक की “रियर विंडो” एक ऐसे फ़ोटोग्राफ़र की कहानी है जिसके पैर में प्लास्टर चढ़ा है और वह दिन भर अपनी व्हीलचेयर पर बैठा दूरबीन से सामने वाली बिल्डिंग के लोगों को देखता रहता है। धीरे-धीरे उसे पता चलता है कि सामने वाले अपार्टमेंट में रहने वाले व्यक्ति ने उसकी पत्नी की हत्या कर दी है।
हिचकॉक ने इस पूरी फ़िल्म में दर्शकों को नायक के नज़रिए से देखने पर मजबूर कर दिया है। यानी दर्शक उतना ही जानते हैं जितना नायक जानता है। हिचकॉक सीधे तौर पर कुछ नहीं दिखाते, बस दर्शकों के मन में डर पैदा करते हैं। यही हिचकॉक का मास्टरस्ट्रोक था कि उन्होंने दर्शकों को इस हत्या का गवाह बना दिया। पूरी कहानी एक खिड़की के ज़रिए कहना एक बिल्कुल नया प्रयोग था। इस फ़िल्म के ज़रिए हिचकॉक ने दुनिया को मैकगफिन का कॉन्सेप्ट भी दिया। एक ऐसा कॉन्सेप्ट जो कहानी को आगे बढ़ाता है लेकिन फ़िल्म में उसकी असली अहमियत कुछ खास नहीं है। मिसाल के तौर पर, इस फ़िल्म में दूरबीन ही मुख्य तत्व है, जबकि साइको में जेनेट ने जो पैसे चुराए थे, वो मैकगफिन प्रभाव है, लेकिन बाद में वो पैसे फ़िल्म में महत्वहीन हो जाते हैं।
इसी तरह, वर्टिगो को हिचकॉक की सबसे गहरी और मनोवैज्ञानिक फ़िल्म माना जाता है। यह फ़िल्म सस्पेंस से ज़्यादा जुनून, अपराधबोध और पहचान के संकट के पहलुओं को उजागर करती है। फ़िल्म का सस्पेंस किसी मर्डर मिस्ट्री के बारे में नहीं, बल्कि एक इंसान के विचारों, उसके भ्रमों और जुनून के बारे में है। इसे हिचकॉक की सबसे जटिल फ़िल्म माना जाता है। वह कैमरे को आँख की तरह इस्तेमाल करने में यकीन रखते थे। जो झूठ नहीं बोलता, लेकिन हमेशा गुमराह करता है।लेकिन हिचकॉक सस्पेंस की दुनिया से क्यों जुड़े? इसका जवाब उनके बचपन में छिपा है। हिचकॉक के बचपन का उनकी फ़िल्मों पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने ख़ुद कई साक्षात्कारों में स्वीकार किया है कि उनकी कहानियों में मौजूद डर, अकेलापन और अपराधबोध उनके बचपन की छाप हैं।
लंदन में जन्मे और पले-बढ़े हिचकॉक तीन भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। बचपन में उनका ज़्यादातर समय अकेलेपन में बीता। अपनी आत्मकथा में हिचकॉक लिखते हैं कि मैं बचपन में ज़्यादा खेल नहीं खेल पाया क्योंकि मुझे ऐसा करने की इजाज़त नहीं थी। सारा समय पढ़ने और चर्च जाने में बीतता था। घर का माहौल बहुत सख्त था। कैथोलिक परिवार में जन्मे हिचकॉक को बचपन में ही सिखाया गया था कि हर गलती की सज़ा मिलती है। इस वजह से उनके मन में हमेशा अपराधबोध और सज़ा का डर बना रहता था। ऐसा ही कुछ हमें हिचकॉक की फिल्मों में देखने को मिलता है, जब उनकी फिल्मों के किरदार या तो अकेलेपन से जूझते हुए दिखाए जाते हैं या फिर डर के साये में ज़िंदगी जीते हुए।हिचकॉक ने एक बार कहा था कि मैं बचपन में बहुत डरपोक था। मुझे हर चीज़ से डर लगता था, पुलिस से, सज़ा से और यहाँ तक कि अजनबियों से भी। मैंने अपनी फिल्मों में लोगों को इसी डर और अपराधबोध का एहसास कराने की सोची।
1980 में नाइटहुड की उपाधि पाने वाले हिचकॉक ने अपने लंबे और शानदार करियर में 50 से ज़्यादा फ़िल्में बनाईं। वह एक ऐसे कहानीकार थे जिनका पूरी दुनिया के फिल्म उद्योग पर गहरा प्रभाव था। देश-दुनिया के कई बड़े-छोटे निर्देशक उनकी कहानी कहने के अंदाज़ और सस्पेंस की कला से प्रभावित थे। मार्टिन स्कॉर्सेसे से लेकर क्रिस्टोफर नोलन, डेविड फिन्चर और अनुराग कश्यप तक, सभी उनसे सीधे प्रभावित हैं। यही वजह है कि हिचकॉक के सिनेमा की झलक स्टैनली कुब्रिक की द शाइनिंग, स्टीवन स्पीलबर्ग की जॉज़, मार्टिन स्कॉर्सेसे की शटर आइलैंड, नोलन की मोमेंटो, डेविड फिन्चर की गॉन गर्ल और सेवन में दिखाई देती है।
हिचकॉक की फ़िल्मों को सिर्फ़ मनोरंजन के लिहाज़ से नहीं, बल्कि कहानी कहने की कला में एक मास्टरक्लास के रूप में देखा जाता है। कैमरा मूवमेंट से लेकर संगीत के सही इस्तेमाल और सस्पेंस क्रिएट करने तक, हर चीज़ में उन्हें माहिर माना जाता है। दुनिया भर के कई प्रतिष्ठित ड्रामा स्कूलों में हिचकॉक की फ़िल्मों के बारे में विस्तार से पढ़ाया जाता है। उनके सिनेमा को एक्टिंग स्कूलों में फ़िल्म केस स्टडी के तौर पर शामिल किया जाता है।अगर हिचकॉक न होते, तो आज की सस्पेंस और थ्रिलर फ़िल्मों का चेहरा कुछ और होता। उन्होंने अपनी ज़बरदस्त विज़ुअल स्टोरीटेलिंग से कहानी कहने के तरीके को पूरी तरह से बदल दिया। उनका मानना था कि उनकी फ़िल्में जिगसॉ पज़ल की तरह होती हैं, जिन्हें सही ढंग से समझना ज़रूरी है।