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अहंकार: वह अदृश्य दुश्मन जो धीरे-धीरे करता है जीवन का विनाश, वायरल क्लिप में जाने अपने भीतर छिपे विनाशक से लड़ने के उपाय

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मानव जीवन में सबसे बड़ा शत्रु कोई बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि भीतर छिपा एक अदृश्य दानव होता है—अहंकार। यह ऐसा शत्रु है जो न तो तलवार से काटा जा सकता है, न ही किसी दीवार से रोका जा सकता है। यह भीतर से जन्म लेता है, धीरे-धीरे बढ़ता है, और जब तक व्यक्ति चेत नहीं जाता, तब तक उसके पूरे व्यक्तित्व को निगल लेता है। कहा भी गया है, “अहंकार भयानक शत्रु के समान है, यह जिसे अपने वश में कर लेता है, उसे नष्ट करके ही छोड़ता है।”अहंकार का सबसे बड़ा संकट यह है कि यह व्यक्ति को उसकी असली पहचान से दूर कर देता है। एक बार जब यह मन में स्थान बना लेता है, तो इंसान यह भूल जाता है कि वह कौन है और किस उद्देश्य से जीवन जी रहा है। वह खुद को दूसरों से ऊँचा समझने लगता है, अपने विचारों को सर्वोपरि मानता है, और दूसरों की बातों को तुच्छ मानकर अस्वीकार करने लगता है। यहीं से शुरू होती है आत्म-विनाश की प्रक्रिया।

अहंकार और विनाश के ऐतिहासिक उदाहरण
इतिहास गवाह है कि अहंकार ने न केवल व्यक्तियों बल्कि साम्राज्यों को भी गिरा दिया है। रावण, जो अत्यंत विद्वान, बलशाली और शिवभक्त था, अहंकार के कारण ही नाश को प्राप्त हुआ। उसने अपने बल, बुद्धि और सामर्थ्य का अहंकार किया और प्रभु श्रीराम से टकरा गया। अंततः उसका पूरा वंश समाप्त हो गया।इसी तरह महाभारत में दुर्योधन का अहंकार उसे विनाश की ओर ले गया। उसने धर्म, रिश्ते और न्याय की परवाह किए बिना केवल अपने अहम के लिए युद्ध ठाना और अंततः पूरा कौरव वंश कुरुक्षेत्र की भूमि पर समाप्त हो गया।

व्यक्तिगत जीवन में अहंकार का प्रभाव
व्यक्तिगत स्तर पर भी, अहंकार रिश्तों को तोड़ता है, मित्रता में दरार डालता है और सामाजिक जीवन में अकेलापन लेकर आता है। जब व्यक्ति यह सोचने लगता है कि वह सबसे ज़्यादा जानता है, तब वह सीखने की प्रक्रिया से दूर हो जाता है। ऐसा व्यक्ति आलोचना को सहन नहीं कर पाता, प्रशंसा का भूखा हो जाता है और आत्ममुग्धता में जीने लगता है।यह स्थिति व्यक्ति को अंदर से खोखला कर देती है। वह हर किसी को अपने अधीन देखना चाहता है, दूसरों की राय उसे अपमानजनक लगती है, और वह धीरे-धीरे एक ऐसे खोल में बंद हो जाता है जहां कोई उसका सच्चा मित्र नहीं रह जाता।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अहंकार
भारतीय दर्शन में अहंकार को ‘माया’ की एक शाखा माना गया है, जो आत्मा और परमात्मा के बीच का सबसे बड़ा अवरोध है। उपनिषदों में कहा गया है कि “अहं ब्रह्मास्मि” का अनुभव तब तक नहीं हो सकता जब तक व्यक्ति ‘अहं’ यानी अहंकार का त्याग नहीं करता।भगवद गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कर्म करो लेकिन फल का अहंकार मत करो। अहंकार को त्यागना ही सच्चा योग है, और जो व्यक्ति ऐसा कर पाता है वही आत्मज्ञान की दिशा में आगे बढ़ता है।

अहंकार बनाम आत्मसम्मान
अक्सर लोग अहंकार और आत्मसम्मान को एक जैसा समझ लेते हैं, जबकि दोनों में स्पष्ट अंतर है। आत्मसम्मान का अर्थ है स्वयं के अस्तित्व और मूल्यों का सम्मान करना, जबकि अहंकार का अर्थ है स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझना। आत्मसम्मान सहयोग, शांति और संतुलन को जन्म देता है, वहीं अहंकार टकराव, संघर्ष और असंतुलन को बढ़ावा देता है।

कैसे करें अहंकार पर विजय?
स्वीकार करें कि आप सब कुछ नहीं जानते – विनम्रता सबसे बड़ा गुण है। जब व्यक्ति स्वीकार करता है कि सीखने की कोई सीमा नहीं, तब वह अहंकार से दूर रहता है।
ध्यान और आत्मचिंतन करें – रोज़ कुछ समय खुद के भीतर झांकना, अपने विचारों और व्यवहार का मूल्यांकन करना, अहंकार को कमजोर करता है।
आलोचना को स्वीकार करना सीखें – जब आप आलोचना को खुले मन से स्वीकार करते हैं, तब आप अहंकार के प्रभाव से बाहर आते हैं।
सेवा भाव अपनाएं – जब आप दूसरों की सेवा करते हैं, तो आपका ध्यान ‘मैं’ से हटकर ‘हम’ पर चला जाता है। यही अहंकार के विघटन की शुरुआत है।

अहंकार एक धीमा ज़हर है जो व्यक्ति के आत्मिक, सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य को धीरे-धीरे खत्म करता है। यह न केवल हमारे रिश्तों को नष्ट करता है, बल्कि आत्मा के परम लक्ष्य यानी परमात्मा से मिलन को भी बाधित करता है। इसलिए, यदि हम जीवन में सच्ची सफलता, शांति और प्रेम चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने भीतर बसे इस अहंकार रूपी शत्रु को पहचानकर उससे मुक्ति पानी होगी।

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